भारत के सर्वोच्च न्यायालय(सुप्रीम कोर्ट) ने 3 अक्टूबर, 2024 को सुकन्या शांता बनाम भारत संघ के मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है जिसमें विभिन्न राज्यों के जेल मैनुअल के उन प्रावधानों को रद्द कर दिया गया है जो जेल में काम को जाति के आधार पर आवंटित करने और अधिसूचित जनजातियों को स्वभाविक अपराधी के रूप में वर्गीकृत करने से संबंधित थे।
इस मामले को सुकन्या शांता बनाम भारत संघ (UOI) के नाम से जाना जाता है।
जाति आधारित कार्य वितरण का अंत: अदालत ने कहा कि जेलों में कैदियों को उनकी जाति के आधार पर काम देना असंवैधानिक है। यह प्रथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा निषिद्ध अस्पृश्यता को बढ़ावा देती है।
अधिसूचित जनजातियों का वर्गीकरण: फैसले में कहा गया है कि अधिसूचित जनजातियों को स्वभाव से ही अपराधी मानना और इस आधार पर उनके साथ भेदभाव करना गलत है। यह अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है, जो जाति के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
संवैधानिक और सामाजिक प्रभाव: इस फैसले के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के समानता और गरिमा के अधिकारों (अनुच्छेद 14, 15,17, 21) की रक्षा की है, जिससे जेलों में जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने की दिशा में एक कदम बढ़ाया गया है।
कानूनी और संवैधानिक आधार: यह निर्णय कई संवैधानिक अनुच्छेदों पर आधारित था
अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), यह सुनिश्चित करता है कि कैदियों सहित प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान है।
अनुच्छेद 15 (धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध), जो सीधे तौर पर जाति के आधार पर व्यक्तियों द्वारा सामना किए जाने वाले भेदभाव से संबंधित है।
अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन), जाति के आधार पर कार्य सौंपने की प्रथा पर सीधे लागू होता है।
अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा), जिसमें कैदियों के लिए भी सम्मान के साथ जीने के अधिकार पर जोर दिया गया था।
कानूनी परिवर्तन के निर्देश: सभी राज्यों को निर्देश दिया गया है कि वे अपने जेल मैनुअल में संशोधन करें ताकि इन फैसले का पालन हो सके। इसमें 'स्वभाविक अपराधी' की परिभाषा को भी संशोधित करने की बात कही गई है।
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सर्वोच्च अदालत का यह फैसला न केवल जेलों में मौजूद सामाजिक असमानताओं को संबोधित करता है बल्कि समाज में व्यापक स्तर पर जाति विशेष को लेकर (जातिगत पूर्वाग्रहों) को ख़त्म करने का काम भी करेगा।