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गुजरात में सियासी ज़मीन तलाशते कांग्रेस के अरमान

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Published  15 April 2025

क्या कांग्रेस में नई जान फूंकने में सफल होगा पार्टी का अहमदाबाद अधिवेशन? क्या रेस वाले घोड़ों की उसकी तलाश अब पूरी हो जाएगी?

कांग्रेस आज जब भाजपा के मजबूत गढ़ गुजरात की सरज़मीं पर अपना अहम अधिवेशन कर रही है, तो पूरा देश इस बात पर नज़र लगाए हुए है कि क्या पार्टी भाजपा के खिलाफ एक मज़बूत और भरोसेमंद विकल्प बनकर दोबारा उभर सकेगी?

गुजरात : कांग्रेस की ट्रैजिक कहानी

गुजरात में कांग्रेस की कहानी एक राजनीतिक ट्रेजेडी बन चुकी है। 1985 में 149 सीटों की शानदार जीत के बाद पार्टी का राज्य में आज नामलेवा भी मुश्किल से रह गया है। 1990 से सत्ता से बाहर रहने के दौरान भाजपा ने अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली कि अब गुजरात में उसकी हार की कल्पना भी मुश्किल लगती है।

यहीं से निकलकर नरेंद्र मोदी तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने और भाजपा का ‘गुजरात मॉडलउसकी चुनावी सफलता का आधार बन गया।

कांग्रेस के पास नेता तो हैं, लेकिन जमीनी कार्यकर्ता नहीं हैं। रही-सही कसर आम आदमी पार्टी ने पूरी कर दी, जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का 13% वोट काट लिया और पार्टी को महज 17 सीटों पर समेट दिया।

चुनाव के एक साल बाद कांग्रेस के विधायक भी पार्टी छोड़ने लगे। वर्तमान में विधानसभा की 161 सीटें भाजपा के पास और केवल 12 सीटें कांग्रेस के पास हैं।

स्थिति तो यह हो गई कि कांग्रेस के पूर्व नेता प्रतिपक्ष और पार्टी के अध्यक्ष रहे अर्जुन मोडवाडिया जैसे कद्दावर नेता ने भी भाजपा का दामन थाम लिया।

गौरतलब है कि गुजरात में कांग्रेस का आख़िरी अधिवेशन 1961 में भावनगर में हुआ था। अब 64 साल बाद पार्टी ने एक बार फिर गुजरात पर पूरा ध्यान केंद्रित किया है।

दी राहुल फैक्टर

rahul gandhi gujarat

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह राहुल गांधी की रणनीति है कि कांग्रेस को जड़ों तक मजबूत किया जाए और भाजपा को उसके ही गढ़ में चुनौती दी जाए। राहुल गांधी लगातार भाजपा पर आक्रामक हैं और विपक्ष को संगठित करने में लगे हुए हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन के बाद उन्होंने कहा था, “बस बहुत हो गया,” और दावा किया कि 2027 में कांग्रेस गुजरात से भाजपा को सत्ता से बाहर कर देगी, "ठीक वैसे ही जैसे हमने उन्हें अयोध्या में हराया था।”

आसान नहीं है भाजपा को गुजरात में मात देना

हालांकि, यह कार्य कथन से कहीं अधिक कठिन है। भाजपा ने 1990 से अब तक गुजरात में अपने संगठनात्मक ढांचे और जनाधार को इतना मजबूत बना लिया है कि तमाम बार एंटी-इनकम्बेंसी की चर्चाओं के बावजूद सत्ता नहीं बदली। नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बन गए, पर गुजरात में भाजपा की पकड़ नहीं छूटी।

एक दौर ऐसा भी आया जब सूरत के व्यापारियों ने कहा, “कमल का फूल हमारी भूल,” फिर भी भाजपा जीतती रही।

गुजरात का भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता संग्राम से ही अहम स्थान रहा है। महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल की यह भूमि भाजपा और कांग्रेस दोनों के राजनीतिक विमर्श का केंद्र रही है। सरदार पटेल को भाजपा ने अपने विचार और प्रतीक के रूप में स्थापित कर लिया है, जबकि उनके और नेहरू के संबंधों को लेकर टीका-टिप्पणियाँ निरंतर होती रहती हैं।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत का सबसे बड़ा सहकारिता आंदोलन 'अमूल' भी यहीं से शुरू हुआ था। मौजूदा सरकार ने सहकारिता को नई ऊर्जा देने का लक्ष्य बनाया है और गृहमंत्री अमित शाह, जो स्वयं गुजराती हैं, सहकारिता मंत्री की जिम्मेदारी भी संभाल रहे हैं।

निष्कर्ष

कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन को केवल एक राजनीतिक आयोजन नहीं, बल्कि उसकी पुनर्जीवन यात्रा की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है। यह स्पष्ट है कि पार्टी अब प्रतीकों की राजनीति से निकलकर जमीनी रणनीति पर लौटना चाहती है।

लेकिन क्या वह वाकई भाजपा के अभेद किले को चुनौती दे पाएगी या फिर यह प्रयास भी महज एक रस्मअदायगी बनकर रह जाएगा? इसका उत्तर आने वाले महीनों में गुजरात की धरती पर ही लिखा जाएगा।