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हरियाणा में कांग्रेस का कैसे हुआ मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ मूमेंट?

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Published  09 October 2024

हरियाणा में जितने भी प्री-पोल सर्वे हुए, एग्जिट पोल आए उन सबमें कांग्रेस भाजपा से बहुत आगे दिखाई दे रही थी परन्तु जब नतीजे आए तो कांग्रेस राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी बनी जबकि भाजपा लगातार तीसरी बार राज्य की सत्ता में आने में कामयाब हुई और ये भाजपा की अभी तक की सबसे बड़ी जीत है। प्रचंड मोदी लहर के साल 2014 में भी भाजपा 47 सीटें ही जीती थी जबकि इस चुनाव में 48 सीटें जीती है। यहां तक की कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष उदयभान अपनी सीट होडल से चुनाव हार गए। ऐसे क्या कारण रहे जिनसे जीती बाजी कांग्रेस के हाथ से चली गई?

हुड्डा पिता-पुत्र की मनमानी एवं अतिआत्मविश्वास

इस चुनाव को कांग्रेस का मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ मूमेंट कहा जा सकता है क्योंकि इन दोनों राज्यों को कांग्रेस चुनाव से पहले ही जीता मानकर चल रही थी और दोनों जगह बुरी तरह हारी। हरियाणा में कांग्रेस सरकार से ज्यादा हुड्डा सरकार का नारा बुलंद था। तमाम मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया कि 89 में से 75 टिकट भूपिन्दर हुड्डा ने बांटे हैं जिससे यह तो स्पष्ट था कि सरकार आने की स्थिति में मुख्यमंत्री हुड्डा परिवार से होगा। इन 75 टिकटों में कुछ उम्मीदवार ऐसे थे जो जिताऊ नहीं थे पर उन्हें केवल वफादारी के लिए टिकट दिया गया। यही नहीं भूपिन्दर हुड्डा के पुत्र दिपेन्दर हुड्डा के नाम पर दिपेन्दर सरकार जैसे गाने कैंपेन में सुनाई दिए। हरियाणा में कांग्रेस की तरफ से दो ही स्टार कैंपेनर हेलिकॉप्टर लिए प्रचार करते दिखे जो हुड्डा पिता-पुत्र थे। इसे पार्टी के दूसरे नेताओं ने हुड्डा की मनमानी की तरह लिया और हुड्डा विरोधी खेमे की गोलबंदी हो गई।

एसआरके गठबंधन

हरियाणा में कांग्रेस के हुड्डा खेमे के अलावा दूसरा धड़ा एसआरके यानी सैलजा, रणदीव सुरजेवाला और किरन चौधरी का था। अजय माकन के राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग के बाद से किरन चौधरी भाजपा में चली गईं और राज्यसभा सांसद चुन ली गईं। इनकी बेटी श्रुति चौधरी भाजपा से विधायक हो गई हैं। परन्तु रणदीव सुरजेवाला और कुमारी सैलजा ने कांग्रेस में रहकर ही हुड्डा की मजबूत मुखाल्फत की। रणदीव सुरजेवाला अपने बेटे की सीट कैथल तक ही सीमित रहे जबकि सैलजा ने शुरुआती 15 दिन चुनाव प्रचार नहीं किया। सैलजा ने कई टीवी चैनलों पर जाकर कहा कि वो विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थीं परन्तु उन्हें नहीं लड़ने दिया गया। उन्होंने यहां तक कहा कि भूपिन्दर हुड्डा से आखिरी बार कब बात हुईं ये भी उन्हें याद नहीं है। ऐसे बयानों और प्रचार ना करने से उन्होंने अपने समर्थकों को स्पष्ट संकेत दे दिया कि चुनाव में क्या करना है।

गैर-जाट समुदाय में बेचैनी

राज्य में जाट समुदाय की आबादी करीब 25% है एवं जाट एक प्रभावशाली समुदाय है। बाकी बड़े समुदायों में दलित, सैनी, यादव एवं ब्राह्मण हैं। हुड्डा के मुख्यमंत्री बनने से पहले हरियाणा में कांग्रेस के लगभग सभी बड़े समुदायों से एक-एक बड़ा नेता रखती थी। जैसे विश्नोई समुदाय के लिए कुल्दीप विश्नोई, दलितों के लिए सैलजा और अशोक तंवर, यादवों में कैप्टन अजय यादव और राव इंद्रजीत सिंह, जाटों में भी बंशीलाल परिवार से किरण चौधरी जैसे विकल्प थे परन्तु धीरे-धीरे केवल हुड्डा ही कांग्रेस बन गए। जाट समाज के प्रभुत्व के कारण बाकी समुदाय कांग्रेस में अपना महत्व कम मानने लगे और उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया। कांग्रेस ने लगभग दो दशक से प्रदेशाध्यक्ष दलित को बनाया है परन्तु इन दलित नेताओं में सैलजा और अशोक तंवर की पहचान हुड्डा के दुश्मन तो उदयभान की पहचान हुड्डा के सिपहेसलार के रूप में रही। ऐसे में दलित समुदाय में भी इसका नकारात्मक असर हुआ और दलित समुदाय ने कांग्रेस का साथ नहीं दिया।

आरएसएस का मजबूत कमबैक

ऐसा देखा गया कि लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा और आरएसएस के बीच तारतम्य की कमी रही परन्तु हरियाणा चुनाव में ऐसा नहीं दिखा। दिल्ली तीन तरफ से हरियाणा से घिरी हुई है। हरियाणा में जिस पार्टी की सरकार हो उसकी दिल्ली में धमक मजबूत होती है क्योंकि धरना-प्रदर्शन-रैली के लिए बड़ी संख्या में कार्यकर्ता और भीड़ हरियाणा से आ जाती है। हरियाणा प्रशासन भी इसमें साथ देता है जिससे यह काम आसान हो जाता है इसलिए भाजपा और आरएसएस दोनों को यह अहसास था कि हरियाणा को हाथ से जाने देना कांग्रेस को मजबूत होने का मौका देना होगा। हरियाणा में मॉब लिन्चिंग, नूंह हिंसा एवं शहरों में भी मुस्लिमों की आबादी एक बड़ा कारण है जिससे वहां आरएसएस को विस्तार का मौका मिला है। आरएसएस ने हरियाणा में भाजपा का कदम से कदम मिलाकर साथ दिया और प्री-पोल सर्वे और एग्जिट पोल को पलट कर रख दिया।

कांग्रेस में संगठन का अभाव

यह सुनने में आश्चर्यजनक लग सकता है परन्तु दिल्ली के बगल के राज्य हरियाणा में कांग्रेस के पास 10 साल से जिला और ब्लॉक अध्यक्ष तक नहीं हैं क्योंकि आपसी गुटबाजी में संगठन ही नहीं बन सका। जबकि भाजपा के पास ना सिर्फ अपना संगठन है बल्कि आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठन तथा हिन्दूवादी संगठनों का साथ भी भाजपा को मिलता है। अतिआत्मविश्वास और संगठन की कमी के कारण कांग्रेस का कैंपेन और गारंटी कार्ड जमीन पर नहीं पहुंचा और कांग्रेस फिर से आने वाले पांच साल के लिए विपक्ष में बैठ गई।