हमारी संसद के सत्रों के दौरान शून्यकाल यानी Zero Hour एक महत्वपूर्ण और अद्वितीय अवधि काल है, जो संसद की कार्यप्रणाली में विशेष महत्व रखता है। शून्यकाल भारतीय संसद के दोनों सदनों- लोकसभा और राज्यसभा में आयोजित होता है। शून्यकाल को 1962 में संसद में पेश किया गया था। इस दौरान भारतीय संसद के सदस्य (सांसद) तत्काल सार्वजनिक मुद्दों को संसद में उठे सकते हैं। यह प्रश्नकाल के तुरंत बाद शुरू होता है और तब तक चलता है, जब तक कि दिन का एजेंडा नहीं लिया जाता है। शून्यकाल की अवधि स्थिर नहीं होती है, लेकिन आम तौर पर यह एक घंटे से भी कम चलता है। प्रश्नकाल और कार्यसूची के बीच के समय को शून्यकाल कहा जाता है। यह काल सांसदों को ऐसे मुद्दों पर चर्चा करने का अवसर प्रदान करता है, जिनके बारे में समय पर सूचना प्राप्त करने या उन मुद्दों का समाधान चाहते हैं। यह काल जनता की चिंताएँ और समस्याओं को संसद में लाने और उठाने का अच्छा मंच है।
शून्यकाल की प्रक्रिया:
भारतीय संसद में शून्यकाल एक महत्वपूर्ण संसदीय प्रक्रिया है, जो सांसदों को तत्काल और महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करने का अवसर प्रदान करता है। आइए शून्यकाल की प्रक्रिया को समझते है।
मुद्दों का चयन:
शून्यकाल में उठाए जाने वाले मुद्दे आमतौर पर सांसदों द्वारा प्रस्तावित होते हैं। सांसद या तो मौखिक या लिखित रूप में मुद्दा उठाते हैं। ये मुद्दे विभिन्न क्षेत्रों से हो सकते हैं। जैसे- स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, पर्यावरण अन्य सामयिक मुद्दे आदि।
मुद्दों का परिशीलन:
मुद्दे उठाए जाने के बाद, सभापति यानी लोकसभा के अध्यक्ष औ राज्यसभा के उपसभापति उन मुद्दों की प्रासंगिकता और महत्व का मूल्यांकन करते हैं। इनमें से कुछ मुद्दों पर सीधे चर्चा स्वीकार कर ली जाती हैं, जबकि अन्य मुद्दों को प्रक्रिया के लिए भेज दिया जाता है।
विचार-विमर्श-:
स्वीकृत मुद्दों पर चर्चा शुरू होती है। सांसद संबंधित मुद्दों पर अपनी राय प्रस्तुत करते हैं और मंत्री या संबंधित विभाग के अधिकारी उस मुद्दे पर जवाब देने का प्रयास करते हैं। यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत तात्कालिक होती है। इससे मुद्दों पर जल्दी ध्यान दिया जाता है।
समाधान और सुझाव:
इस चर्चा के दौरान सांसद संबंधित मुद्दे के समाधान के लिए सुझाव देते हैं और सरकार से अपेक्षाएँ व्यक्त करते हैं। शून्यकाल के अंत में मंत्री या सरकार द्वारा किसी कार्यवाही की घोषणा की जाती है।
शून्यकाल का महत्व:
शून्यकाल भारतीय लोकतंत्र को मजबूत और बेहतर बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह काल सांसदों को अपने क्षेत्र और आम जनता के मुद्दों को संसद में उठाने और उनकी जवाबदेही तय करने का अवसर प्रदान करता है। शून्य काल में उठाए गए मुद्दों का त्वरित और शीर्घ समाधान मिल सकता है, क्योंकि यह संसद को जनसमस्याओं पर शीघ्रता से प्रतिक्रिया देने के लिए क्षमता प्रदान करता है। शून्य काल में अपने क्षेत्र के जन मुद्दों को उठाकर सांसद मीडिया और जनता का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं। इस काल में खुली चर्चा और मुद्दों पर त्वरित प्रतिक्रिया से संसदीय प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित होती है। इससे नागरिकों का जनप्रतिनिधियों पर विश्वास बढ़ता है, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा है।
शून्य काल की चुनौतियाँ और सुधार- भारतीय संसद की शून्यकाल प्रणाली में विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ हैं, जिनमें सुधार करने की आवश्यकताएँ हैं।
1- शून्यकाल की अवधि सीमित है, जिस कारण कभी-कभी संसद में महत्वपूर्ण मुद्दों पर पूर्ण रूप से चर्चा नहीं हो पाती है। इसलिए शून्यकाल के समय को प्रबंधन करने की आवश्यकता दिखाई देती है।
2- शून्यकाल के दौरान उठाए गए सभी मुद्दे हमेशा चर्चा के लिए स्वीकार नहीं होते हैं, जिससे महत्वपूर्ण मुद्दे संसद में नहीं उठ पाते हैं। इसलिए इसके प्रस्तावों की स्वीकृति में बदलाव करने की जरूरत महसूस होती है।
3- शून्यकाल का के दौरान मुद्दों पर केवल चर्चा होती है। समाधान की कोई निश्चित योजना और कार्रवाई की घोषणा हमेशा नहीं होती है। इसलिए समाधान की कमी में सुधार करने की जरूरत दिखाई देती है।
शून्यकाल की इन चुनौतियों को ध्यान में रख कर सकारात्मक सुधारों पर विचार किया जा सकता है। जैसे- शून्यकाल की अवधि बढ़ाना, मुद्दों की प्राथमिकता तय करने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश लागू करना आदि। शून्यकाल भारतीय संसदीय प्रणाली की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इस काल में लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों (सदस्यों) को अपने संसदीय क्षेत्र के मुद्दे को तत्काल उठाने और सरकार से जवाब प्राप्त करने का मौका मिलता है। शून्य काल भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली को मजबूत और पारदर्शी बनाने में अहम रोल निभाता है।