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रिपोर्ट

क्या हरकिशन सिंह सुरजीत की कमी महसूस कर रहा है इंडिया गठबंधन ?

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प्रकाशित10 दिसंबर 2024

महाराष्ट्र की हार के बाद इंडिया गठबन्धन में लीडरशिप के मसले को लेकर जो चिंगारी सुलग रही है और ममता बनर्जी को लीडरशिप देने की मांग की जा रही है तथा कांग्रेस मामले में अलग थलग पड़ती नज़र आ रही है। गठबंधन राजनीति में लीडरशिप की बात आती है तो याद आती है स्वर्गीय हरकिशन सुरजीत की जिनके बिना इसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि गठबंधन को जोड़ कर के सरकार कैसे चलाई जा सकती हैं।

23 मार्च 1916 को जालंधर में जन्मे, सुरजीत महान क्रन्तिकारी भगत सिंह से प्रभावित थे तथा उनके शहीदी दिवस पर होशियारपुर में एक कोर्ट की चाट पर तिरंगा फहराने पर उन पर गोली चली थी। बाद में उन्हें जेल भी जाना पड़ा। कोर्ट में जब उनसे उनका नाम पूछा गया था तो सुरजीत ने बेबाकी से कहा था- लंदन तोड़ सिंह।

1936 में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली तथा इसके विघटन के बाद 1964 में सीपीआई (एम) में शामिल हो गए तथा उम्रभर सक्रिय रहे।

सीधे चलते हैं नब्बे के दशक से जहाँ से देश में वास्तविक तौर पर गठबंधन की राजनीति का आरम्भ हो रहा था और इसी के साथ शुरुआत हो रही थी हरकिशन सिंह सुरजीत के किंगमेकर वाले अवतार की।


नेशनल फ्रंट की सरकार गठन

राजीव गाँधी की कांग्रेस को चुनौती देने के लिए उस दौर में जनता दल, तेलुगु देशम, दक्षिण भारत की पार्टियों समेत मोर्चा बनाया गया जिसका नाम रखा गया था राष्ट्रीय मोर्चा। इस मोर्चे ने वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की अग्रणी भूमिका में सरकार बनाई लेकिन बहुमत से दूर थी। ऐसे में 85 सीटों वाली भाजपा को बाहर से समर्थन के लिए साथ आना पड़ा, साथ ही वाम मोर्चे ने भी इस सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

इस कूटनीति में हरकिशन सिंह सुरजीत का नाम सबसे आगे रहा। सभी पार्टियों को साथ लेकर चलने का हुनर हमेशा से ही आता था और देश की राजनीति को अभी उनकी इस कला की और परख करनी थी।

आगे चलकर जब पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी तब भी सुरजीत एंटी कांग्रेस और एंटी भाजपा पार्टियों का ध्रुव वही बने हुए थे।


यूनाइटेड फ्रंट की स्थापना और देवेगौड़ा का प्रधानमंत्री बनना

1996 का समय देश की राजनीति के बहुत महत्वपूर्ण है। इसी साल हरकिशन सिंह सुरजीत का किंगमेकर के तौर पर वास्तविक रूप देखने को मिला।

1996 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरते हुए सरकार बनाने का दावा किया। देश में पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।

सरकार महज 13 दिन ही चली। 1996 के आम चुनावों में भाजपा को 13 मई 1996 को 160 सीटें मिलीं, जबकि बहुमत के लिए 272 सीटों की आवश्यकता थी। सरकार को बहुमत नहीं मिलने के कारण संसद में विश्वास मत पर मतदान हुआ, जिसमें उनकी सरकार हार गई और यह सरकार गिर गई।

वाजपेयी सरकार के गिरने के बाद, एक नई राजनीतिक स्थिति उत्पन्न हुई। इसके परिणामस्वरूप एक नया गठबंधन, जिसे "यूनाइटेड फ्रंट" कहा गया, का गठन हुआ। यूनाइटेड फ्रंट में विभिन्न क्षेत्रीय दलों और वामपंथी दलों का समर्थन था, जिनमें कांग्रेस का समर्थन नहीं था। इसमें भी हरकिशन सुरजीत की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

यूनाइटेड फ्रंट में कई छोटे क्षेत्रीय दल जैसे कि तृणमूल कांग्रेस, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK), तेलुगू देशम पार्टी (TDP), आदि शामिल थे।

इस मोर्चे में शामिल सभी दलों को एकजुट रखना, एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाने से लेकर कौन प्रधानमंत्री बने इस पर सुरजीत की राय महत्वपूर्ण थी। वो चाहते थे कि ज्योति बसु प्रधानमंत्री बने लेकिन पार्टी स्तर पर फैसला नहीं हुआ। इसलिए आम सहमति से कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला हुआ। फिर सुरजीत कांग्रेस को साथ लेकर आए और कांग्रेस के बहरी समर्थन से यूनाइटेड फ्रंट की सरकार बनी और देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने।

सुरजीत मृदुभाषी थे, मीडिया के लिए सदैव उपलब्ध होते थे। देर सबेर मीटिंग्स के दौर उनके ही बंगले पर होते थे। उनका तीन मूर्ती लेन स्थित आवास हमेशा अन्य पार्टियों के नेताओं, रणनीतिकारों तथा पत्रकारों से भरा रहता था।

तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी के देवेगौड़ा से मतभेद के बाद यह सरकार ज़्यादा नहीं चली और एक बार फिर अस्थिरता के बीच सुरजीत और अन्य नेताओं ने आई के गुजराल को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला लिया।

इस पूरे दौर में हरकिशन सुरजीत को गठबंधन की राजनीति का चाणक्य माना जाने लगा था। हालाँकि उन्होंने किसी भी सरकार में कोई पद नहीं किया था लेकिन सभी महत्वपूर्ण फैसलों में वो सहभागी होते थे।


यूपीए (1) में कांग्रेस को सहयोग

इस बीच उनकी उम्र होती जा रही थी पर वे लगातार सक्रिय बने रहे। एक कुशल जुलाहे की तरह उन्होंने कांग्रेस की लीडरशिप वाले गठबंधन यूपीए के गठन में भी गैर भाजपा पार्टियों को एक सूत्र में बाँधने की अपनी कुशलता को दोहराया जिस कारण यूपीए (प्रथम) सरकार का डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में गठन हुआ।

2008 में उनका निधन हो गया।

आज जब इंडिया गठबंधन में लीडरशिप के मुद्दे पर अलग अलग स्वर आ रहे हैं तो याद आती है गठबंधन की राजनीति के हीरो हरकिशन सिंह सुरजीत की जिनका लोहा सत्ता और विपक्ष दोनों ही मानते थे।