भारत सरकार ने मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बंगाली भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिए जाने को स्वीकृति दे दी है। शास्त्रीय भाषाएं भारत की गहन और प्राचीन सांस्कृतिक विरासत की संरक्षक के रूप में काम करती हैं, जो प्रत्येक समुदाय की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों का सार प्रस्तुत करती हैं। पहले से मान्यता प्राप्त शास्त्रीय भाषाएं- तमिल, संस्कृत, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम और ओडिया है। अब भारत में शास्त्रीय भाषाओं की संख्या 11 हो गई हैं।
भारत सरकार ने 12 अक्टूबर 2004 को “शास्त्रीय भाषाओं” के रूप में भाषाओं की एक नई श्रेणी बनाने का निर्णय लिया था, जिसमें तमिल को शास्त्रीय भाषा घोषित किया गया और शास्त्रीय भाषा की स्थिति के लिए
निम्नलिखित मानदंड निर्धारित किए गए:
शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने के उद्देश्य से प्रस्तावित भाषाओं का परीक्षण करने के लिए नवंबर 2004 में साहित्य अकादमी के तहत संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक भाषा विशेषज्ञ समिति (एलईसी) का गठन किया गया था। नवंबर 2005 में मानदंडों को संशोधित किया गया और संस्कृत को शास्त्रीय भाषा घोषित किया गया:
निम्नलिखित संशोधित मानदंड –
भाषाविज्ञान विशेषज्ञ समिति (साहित्य अकादमी के अधीन) ने 25.07.2024 को शास्त्रीय भाषा के लिए पात्र अन्य भाषाओँ को शामिल करने के उद्देश्य से मानदंडों को संशोधित किया। साहित्य अकादमी को एलईसी के लिए नोडल एजेंसी नियुक्त किया गया है।
शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त करने के लिए अब भारत सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों के अनुसार, एक भाषा को निम्नलिखित शर्तें पूरी करनी होती हैं:
इन मानदंडों के पूरा होने पर, केंद्र सरकार द्वारा उस भाषा को 'शास्त्रीय भाषा' का दर्जा दिया जा सकता है
शास्त्रीय भाषा का दर्जा देना कई कारणों से महत्वपूर्ण हो सकता है:-
सांस्कृतिक महत्व: शास्त्रीय भाषाओं को आमतौर पर एक समृद्ध सांस्कृतिक, साहित्यिक, और ऐतिहासिक विरासत का वाहक माना जाता है। इस दर्जे से भाषा के महत्व और उसके योगदान को मान्यता मिलती है, जिससे उस संस्कृति के संरक्षण और प्रचार-प्रसार में मदद मिलती है।
भाषाई शोध और शिक्षा: शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने से उस भाषा पर शोध, इसके साहित्य का अध्ययन, और इसे सिखाने के लिए संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं। यह शैक्षणिक संस्थानों में भाषा के अध्ययन को बढ़ावा देता है।
राष्ट्रीय गौरव: यह दर्जा उस भाषा के बोलने वाले समुदाय के लिए एक गौरव का विषय हो सकता है, जिससे राष्ट्रीय एकता और पहचान को बल मिलता है।
संरक्षण के प्रयास: शास्त्रीय भाषाएँ अक्सर प्राचीन ज्ञान और दर्शन की वाहक होती हैं। इन्हें शास्त्रीय दर्जा देने से इनके संरक्षण और पुनर्जीवन के प्रयास को बल मिलता है, जिससे ये भाषाएँ लुप्त होने से बच सकती हैं।
वैश्विक मान्यता: शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त करने से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भाषा की विशिष्टता और महत्ता को मान्यता मिलती है, जिससे वैश्विक सांस्कृतिक आदान-प्रदान में वृद्धि हो सकती है।
आर्थिक लाभ: भाषा के शास्त्रीय दर्जे से संबंधित सांस्कृतिक और शैक्षिक गतिविधियों के लिए निधि, ग्रांट, और परियोजनाएं मिल सकती हैं, जिससे आर्थिक रूप से भी लाभ होता है।
भाषाई विविधता: यह दर्जा भाषाई विविधता को स्वीकार करने और उसका जश्न मनाने का एक तरीका है, जो बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक समाजों में समरसता लाने में मदद कर सकता है।
भारत जैसे देश में, जहाँ भाषाई विविधता बहुत अधिक है, किसी भाषा को शास्त्रीय दर्जा देना उस भाषा के माध्यम से प्राचीन ज्ञान, इतिहास, और संस्कृति को संरक्षित करने का एक प्रयास है, जो कि शिक्षा, संस्कृति, और राष्ट्रीय एकता के लिए महत्वपूर्ण है।
भारत की शास्त्रीय भाषाएं और उनसे जुड़े राज्यों/क्षेत्रों की जानकारी इस प्रकार है:
तमिल - तमिलनाडु, पुडुचेरी
संस्कृत - संस्कृत किसी एक राज्य की भाषा नहीं है लेकिन उत्तराखंड में इसे द्वितीय आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है, और यह भारत के विभिन्न हिस्सों में धार्मिक और शैक्षणिक रूप से उपयोग की जाती है।
कन्नड - कर्नाटक
तेलुगु - तेलंगाना, आंध्र प्रदेश
मलयालम - केरल, लक्षद्वीप
ओडिया (ओड़िया) - ओडिशा
मराठी - महाराष्ट्र
असमिया - असम
बंगाली - पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा
पाली - पाली खुद में किसी विशेष राज्य की भाषा नहीं है लेकिन बौद्ध अध्ययन के संदर्भ में महत्वपूर्ण है और भारत के विभिन्न बौद्ध केंद्रों में अध्ययन की जाती है।
प्राकृत - प्राकृत भी कोई आधुनिक राज्य की भाषा नहीं है, लेकिन यह ऐतिहासिक रूप से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे क्षेत्रों से जुड़ी हुई है जहाँ इसके विभिन्न रूपों का उपयोग हुआ करता था।
शास्त्रीय भाषाओं की सूची में संस्कृत, पाली, और प्राकृत जैसी भाषाएं किसी एक राज्य तक सीमित नहीं हैं; वे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से पूरे भारत में महत्वपूर्ण हैं।